होलिका दहन
विक्रम सम्वत् 2072-73 23th March 2016
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा
' होलिका दहन का पर्व ' फ़ाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष पर पड़ने वाली पूर्णिमा को मनाया जाता है. इस दिन भद्रा रहित समय में विधि-विधान से होलिका पूजन और होलिका दहन किया जाता है.
विधि-
होलिका पूजन के लिए उसके समीप, पूर्व या उत्तरमुख वाले स्थान पर जमीन साफ़ कर बैठे. भगवान विष्णु और अग्निदेव के नामों से होलिका में आहूति दें. फ़ूल-माला, रोली, चावल, गंध, पुष्प, कच्चे सूत, गुड़ हल्दी की गांठे, मूंग बताशे, नारियल, बड़कुले आदि के द्वारा होलिका पूजन व आरती करें. कच्चे सूत को होलिका के चारों ओर लपेटते हुए होलिका की तीन या सात बार परिक्रमा करें.
सूर्यास्त के बाद मुहूर्त का विचार करते हुए होलिका जलाई जाती है. इसमें चने की बालियाँ व गेँहू की बालियाँ सेंक कर खायी जाती है. मान्यता है कि इससे शरीर निरोग रहता है. होलिका दहन की बची हुई अग्नि और राख अगले दिन सुबह घर लाई जाती है. इसके लिए मान्यता है कि इससे बुरी शक्तियाँ घर नही आती, फ़िर इसी राख को प्रातः शरीर पर लगाई जाती है.
कथा-
होलिका दहन के लिए पुराणों में कई कथायें मिलती है, परन्तु सबसे प्रचलित कथा के अनुसार - राक्षसराज हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु से शत्रुता रखता था. उसे अपनी शक्ति पर बहुत अभिमान था. इसलिए उसने स्वयं को ईश्वर धोषित कर दिया. इसके लिए उसने अपने राज्य में यज्ञ, हवन, आहूति सब बन्द करवा दिया. यदि कोई उसके आदेशों की अवहेलना करता तो उसे कठोर से कठोर दण्ड़ दिया जाने लगा. हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था. उसने पिता के आदेशों को नही माना तथा भगवान विष्णु की भक्ति करता रहा. इससे क्रोधित हो असुर राज ने प्रह्लाद को समाप्त करने की कोशिश की परन्तु हर बार भगवान विष्णु की कृपा से वह असफ़ल ही रहा. राक्षसराज हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को भगवान शिव से एक ऐसी चमत्कारिक चादर वरदान में प्राप्त थी जिसे ओढ़ने से अग्नि उसे जला नही सकती थी. प्रह्लाद को अग्नि में जलाने के उद्देश्य से होलिका प्रह्लाद को गोदी में लेकर अग्नि में बैठ गई. इस बार भी भगवान विष्णु ने अपने भक्त पर दया दिखाई और उनकी माया से चादर उड़कर प्रह्लाद पर आ गई. जिससे प्रह्लाद तो बच गया परन्तु होलिका जलकर भस्म हो गई. तभी से होलिका दहन का प्रचलन शुरु हुआ.
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