Friday, July 31, 2015

गुरू पूर्णिमा

गुरू पूर्णिमा

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। भारतभर में यह पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है।
इस दिन महाभारत ग्रन्थ के रचयिता महर्षि वेदव्यास जी का जन्मदिन भी है। उन्होने चारो वेदो की रचना की थी.इस कारण उनका नाम वेद व्यास पड़ा, उन्हें आदि गुरु भी कहा जाता है। उनके सम्मान में गुरू पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है - अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है - उसका निरोधक। अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।इस दिन सुबह घर की सफ़ाई स्नान आदि के बाद घर में किसी पवित्र स्थान पर सफेद वस्त्र फैलाकर उस पर बा

Guru Purnima

'गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से संकल्प करें। इसके बाद दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ें।
अब ब्रह्माजी, व्यासजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा आवाहन आदि करें। फिर अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा कर उन्हें दक्षिणा दें।
प्राचीनकाल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर अपने गुरू का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतार्थ होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरु को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह-जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।
इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए क्योंकि गुरु का आशीर्वाद ही सबके लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है।

Friday, July 17, 2015

श्रीजगन्नाथ रथयात्रा

श्रीजगन्नाथ रथयात्रा

18th July 2015
पुरी की प्रसिद्ध जगन्नाथ यात्रा अपनी अद्भुत, चन्द्रछटा और मनोरमता के लिए जानी जाती है, जहाँ श्री भगवान जगन्नाथ जी बसते हैं। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा की सुंदर मूर्तियों से सुसज्जित रथयात्रा आषाढ़ माह के मध्य में उड़ीसा (पुरी) के जगन्नाथ मंदिर से निकाली जाती है, इसी मनमोहक यात्रा को जगन्नाथ रथयात्रा के नाम से जाना जाता है।
इस जगन्नाथ यात्रा में सबसे आगे नीले वस्त्रों से सजे बलराम जी का रथ होता है, बीच में सुदर्शन चक्र के साथ काले वस्त्रों से सुसज्जित सुभद्रा जी का रथ होता है और सबसे पीछे पीले वस्त्र धारण किये भगवान जगन्नाथ जी का रथ चलता है। इस रथ यात्रा के दर्शन हेतु हजारों लाखों की संख्या में बच्चे, युवा और वृद्ध लोगों की टोलियां होती है।
Jagannath Rath Yatra

ऐसा माना जाता है कि सात दिनों तक भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा यहीं रहते हैं। तीनों रथ संध्या तक गुंडीचा मंदिर तक पहुंचते हैं और दूसरे दिन सुबह-सुबह तीनों मूर्तियों को रथ से उतार कर मंदिर में ले जाया जाता है। इन सात दिन तक भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा यहीं रहते हैं। इन सात पवित्र दिनों तक श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है और पूरे विधि-विधान से इन मूर्तियों की पूजा की जाती है। श्रद्धालुओं के दर्शन को "आइप दर्शन" कहते हैं।
इन तीनों मूर्तियों को आषाढ शुक्ल पक्ष दशमी के दिन फिर से रथों पर बैठाया जाता है और इसके बाद अपने मूल मंदिर में वापिस लाया जाता है इस वापसी यात्रा को "बाहुडा" के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिन श्रद्धालुओं को रथयात्रा के दौरान रस्सी खींचने का मौका मिलता है, वे काफी सौभाग्यशाली होते हैं किन्तु जिन भक्तों को ये मौका नहीं मिला पाता है वे यदि इस रथ यात्रा का दर्शन मात्र कर लें तो उन्हें पुण्य प्राप्त होता है।
इस रथयात्रा के पीछे मान्यता है कि एक बार देवी सुभद्रा अपनी ससुराल से द्वारिका आई थीं तो उन्होंने अपने दोनों भाइयों से नगर-दर्शन की इच्छा व्यक्त की। अपनी प्यारी बहन की इस इच्छा को पूरा करने के लिए दोनों भाइयों अर्थात् बलराम और श्रीकृष्ण ने उन्हें एक रथ पर बैठा कर नगर भ्रमण के कराया। तीनों अलग-अलग रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण के लिए निकल पड़े, जिसमें देवी सुभद्रा का रथ बीच में था और दोनों ओर भाइयों के रथ थे। इसी के बाद से ही हर वर्ष रथयात्रा निकाली जाती है।
इस रथ यात्रा का उल्लेख शास्त्रों और पुराणों में भी मिलता है। स्कन्दपुराण में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा की ओर से आते हुए कर लेता हैं, उन्हें दर्शन मात्र से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

Tuesday, June 2, 2015

कबीर जयंती

कबीर जयंती

02nd June 2015

हिंदी साहित्य में कबीर जी के नाम की अपनी एक अलग ही विशेषता और महत्ता है । हिंदी साहित्य की पृष्ठभूमि पर यदि नजर दौड़ायी जाए तो, कबीर के  वर्णन के बिना हिंदी साहित्य लगभग अधूरा-सा है। कबीर जी संत तो थे ही लेकिन इसके साथ ही वो एक समाज सुधारक भी थे। लेकिन कबीर जी की विशेषता यह थी कि उन्होनें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो के भेद मिटा कर अपने दोहे और विचारों से धार्मिक सदभाव और प्रेम की मिसाल कायम की।

कबीर जी का जन्म - 
उनके जन्म और उनके धर्म दोनों के बारे में अलग-अलग मान्यताएं है। कुछ लोगों का मानना है कि वो हिन्दू धर्म के थे तो, कुछ मानते है कि वो मुस्लिम थे। कबीर जी का जन्म काशी में लहरतारा के पास सन् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ था । उनके जीवन के बारे में अनेक भ्रांतियां हैं। ऐसा माना जाता है की कबीर जी का पालन पोषण जुलाहा परिवार में हुआ था।

कबीर जी के माता-पिता और गुरु – 
कबीर जी के माता-पिता के बारे में भी एक निश्चित राय नहीं हैं। कहा जाता है कि उनके माता-पिता “नीमा” और “नीरू” थे। जिन्होने उनका लालन-पालन किया। कबीर जी अपना गुरू रामानंद जी को मानते थे। कबीर जी का प्रथम साक्षात्कार रामानंद जी से गंगा स्नान के दौरान हुआ था। किसी कारणवश जब कबीर जी घाट की सीढियों पर गिर पडे तो रामानंद जी का पैर उनके ऊपर पड गया और उनके मुंह से सिर्फ “राम-राम” के शब्द निकले, जिन्होनें कबीर जी को इतना प्रभावित किया कि उन्होनें रामानंद जी को अपना गुरु मान लिया।

कबीर जी की भाषा - 
कबीर जी अपने विचार सधुक्कड़ी भाषा में लोगों के सामने रखते थे। कबीर जी ने उन सभी परम्पराओं का खुल कर विरोध करते थे जो लोगों के बीच वैर भाव को जन्म दे। फिर चाहे वो बुराईयां हिन्दू धर्म में रही हों या मुस्लिम धर्म में। कबीर जी भले ही पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन साधू-संतो में उनका काफी सम्मान था। उनके घर के भीतर साधू-संतो का जमावड़ा लगा रहता था। कबीर जी की भाषा इतनी सरल थी की उसे बुद्धिजीवी से लेकर अनपढ़ वर्ग के लोग भी सरलता से समझ जाते थे क्योंकि वो पोथियों का ज्ञान नहीं, बल्कि प्रेम की भाषा बोलते थे। इसलिए कबीर जी की ख्याति घर-घर तक फैली हुई थी।
कबीर जी की रचनाएं - 
कबीर जी के सभी विचारों और दोहो के संग्रह को "बीजक" का नाम दिया गया। जिसमें कबीर जी की मुख से निकली अनमोल वाणी को सहेज कर रखा गया है। कबीर जी के 200 पद और 250 साखियां गुरु ग्रंथ साहब में भी हैं। कबीर जी की दोहे इस प्रकार के थे की वो उस समय तो प्रासंगिक थे ही, लेकिन आज भी वो उतना ही महत्व रखते हैं। कबीर जी के दोहे में किसी प्रकार के धर्म विशेष की झलक नही अपितु वो ज्ञान दिखाई देता है, जो भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है। जिसकी जड़े हमारे संस्कारो से जुड़ी हुई है, जो हमें अपने गुरुओं का आदर करना सिखाती है, जो हमे रिश्तों का सच और सत्य की परिभाषा समझाती हैं। जैसे-
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।
इस दोहे में कबीर जी गुरु की महिमा बता रहे हैं और उन्होंने गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है। क्योकि गुरु आपको ईश्वर तक पहुचाने का मार्ग बताते हैं और यही भारतीय संस्कृति की पहचान है।  
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।। 
कबीर जी इस दोहे में एक ऐसा संदेश दे रहे है कि जो आज के युवाओं के लिये बहुत ही उपयोगी है। कबीर जी बडी सरलता से इस दोहे में बता रहे हैं कि आप क्रोध ना करें, शांति से काम ले और दुनिया में भी शांति का संदेश दें।
कबीर जी की मृत्यु 
कबीर जी की मृत्यु 1518 में मगहर में हुई। मृत्यु के बाद भी हिन्दू और मुस्लिम धर्म के लोगों में इस बात को लेकर विवाद छिड़ गया की कबीर जी का दाह संस्कार उनके धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार   होगा। लेकिन जब कबीर जी के शव के ऊपर से चादर हटाई गई तो, वहां उनके शव के स्थान पर फूल मिले जिसे हिन्दू और मुस्लिम दोनों ने बाँट लिए और अपने-अपने धर्मो के अनुसार उन्हें श्रद्धांजलि दी।    कबीर जी ने अपने जीवन में तो दोनों धर्मो के बीच प्रेम की अलख जगायी लेकिन, अपनी मृत्यु के बाद भी उन्होंने दोनों धर्मो को प्रेम का ही सन्देश दिया।

वट सावित्री व्रत

वट सावित्री व्रत
02nd June 2015
वट सावित्री व्रत सौभाग्य और संतान सुख देने वाला व्रत । इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न - भिन्न मत हैं. स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान बताया गया है तो वहीं निर्णामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है । वट सावित्री व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पुराणों में पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी एक विशेष महत्व बताया गया है. वट में ब्रह्मा, विष्णु , महेश तीनों का ही वास है । इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से प्रत्येक मनोकामना पूरी होती है।
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध का भी प्रतीक माना गया है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। इस दिन बरगद, वट या पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है । वट वृक्ष के नीचे की मिट्टी की बनी सावित्री और सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यम की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करनी चाहिये । पूजा के लिये जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फ़ूल तथा धूप होनी चाहिये। बट की जड़ में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करना चाहिये। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वट वृक्ष की बारह परिक्रमा करनी चाहिये। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाएं और सूत तने पर लपेटती जाएं। इसके पश्चात सत्यवान सावित्री की कथा सुननी चाहिये, जब पूजा समाप्त हो जाये तब ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलना चाहिये।

vat savitri vrat

ऐसा करने का उद्देश्य यह है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को प्राण दिए, उस समय सत्यवान को पानी पिलाकर सावित्री ने स्वयं वट वृक्ष की बौंडी खाकर पानी पिया था। कहा जाता है सत्यवान अल्पायु थे । नारद को सत्यवान के अल्पायु और मृत्यु का समय ज्ञात था, इसलिए उन्होनें सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी परन्तु सावित्री मन से सत्यवान को पति मान चुकी थी, इसलिए उन्होने सत्यवान से विवाह रचाया।
विवाह के कुछ दिनों पश्चात सत्यवान की मृत्यु हो गई, और यमराज सत्यवान के प्राण ले चल दिए। ऐसा देख सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल दी। पीछे आती हुई सावित्री को देखकर यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया । सावित्री बोली - जहां पति है वहीं पत्नी का रहना धर्म है, यही धर्म है और यही मर्यादा, पति को लिये बिना वह नही जायेगी । सावित्री की धर्म निष्ठा से प्रसन्न हो यमराज ने सावित्री के पति के प्राणों को अपने पाश से मुक्त कर दिया । सावित्री ने यमराज से अपने मृत पति को पुन: जीवित करने का वरदान एक वट वृक्ष के ही नीचे पाया था। तभी से महिलाएं अपने पति के जीवन और अक्षत सौभाग्य के लिए वट सावित्री का व्रत करने लगीं, और तभी से इस दिन वट वृक्ष की पूजा की जाती है।

Friday, May 29, 2015

NIRJALA EKADASHI - निर्जला एकादशी

NIRJALA EKADASHI

29th May 2015

ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष पर पड़ने वाली एकादशी को निर्जला एकादशी कहा जाता है। यह इतना कठोर व्रत है कि इस व्रत में पानी भी नहीं पिया जाता। इसलिये इसे निर्जला एकादशी कहा जाता है। इस व्रत को रखने से सभी एकादशियों का फ़ल मिल जाता है। इसलिये वर्ष भर की चौबीस एकादशियों में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
यह व्रत सभी वर्ग के लोगो को करना चाहिए। इस दिन एकान्त में बैठ कर भगवान विष्णु का शेषशायी रूप में ध्यान और "ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय:" मंत्र का जाप करना चाहिये। इस व्रत में रात में सोना वर्जित माना गया है। द्वादशी को स्नान आदि करके भगवान विष्णु का ध्यान लगाना चाहिये। गोदान, वस्त्रदान, फ़ल,शर्बत आदि का दान करने के पश्चात ही गुड़ का बना शर्बत पीना चाहिए। उसके कुछ घंटे के बाद ही भोजन करना चाहिये।

Lord Vishnu
महाभारत काल में एक बार महार्षि व्यास पांडवों के घर पधारे. भीम ने महार्षि व्यास को बताया । युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, सहदेव, माता कुन्ती और द्रोपदी सभी एकादशी का व्रत करते है, और मुझसे भी व्रत करने को कहते है, परन्तु मैं बिना खाये पिये नही रह सकता हूँ। इसलिये चौबीस एकादशियों पर निराहार रहने के कष्ट साधना से बचाकर मुझे कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसे करने से मुझे सभी एकादशियों का फ़ल प्राप्त हो जाए। महर्षि व्यास जानते थे, कि भीम के अन्दर बृक नामक अग्नि है, जो अधिक भोजन करने पर भी शान्त नही होती है। महार्षि ने भीम से कहा कि तुम ज्येष्ठ मास की एकादशी का व्रत रखो। इस व्रत को करने से चौबीसों एकादशियों का लाभ मिल जाता है। तुम जीवन भर इस एकादशी का व्रत करो। भीम ने बड़े साहस से निर्जला एकादशी का व्रत किया, जिसके परिणामस्वरूप सुबह होते होते वे बेहोश हो गये, तब पांडवों ने भीम की बेहोशी को दूर करने के लिये गंगाजल, तुलसी चरणामृत का प्रसाद देकर उनकी बेहोशी को दूर किया। इसलिये इसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है।

Tuesday, May 12, 2015

GANGA DUSSEHRA - गंगा दशहरा

GANGA DUSSEHRA - गंगा दशहरा

27th May 2015

गंगा दशहरा का पर्व ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष दशमी को मनाया जाता है। ज्येष्ठमास की शुक्ल पक्ष की दसवीं को हस्त नक्षत्र और सोमवार होने पर, यह अभूतपूर्व समय माना जाता है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। इसलिये ही यह तिथि अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस दिन गंगा स्नान का महत्व अधिक माना जाता है.क्योकि गंगा स्नान, दान, तर्पण से दस पापों का नाश होता है।  इसलिये इस तिथि को दशहरा कहा जाता है।
प्राचीन काल में अयोध्या के राजा सगर की केशिनी और सुमति नामक दो रानियां थीं। केशिनी के अंशुमान नामक पुत्र और सुमति के साठ हजार पुत्र हुये। राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया यज्ञ की पूर्ति के लिये एक घोड़ा छोड़ा गया ।  इन्द्र यज्ञ को भंग करने हेतु घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये। राजा ने यज्ञ के घोड़े को खोजने के लिये अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा। घोड़े को खोजते- खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे। उन्होने यज्ञ के घोड़े को वहां बंधा पाया। उस समय कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर समझ चोर-चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया।  कपिल मुनि की समाधि टूट गयी। क्रोधित हो राजा के सारे पुत्रों को श्राप से जला कर भस्म कर दिया। पिता की आज्ञा पाकर अंशुमान अपने भाइयों को खोजता हुआ कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचा
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महात्मा गरुड ने अंशुमान को उसके भाइयों के भस्म होने का वृतांत बताया, उन्होनें अंशुमान को यह भी बताया कि अगर अपने भाईयो की मुक्ती चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पड़ेगा। महात्मा की आज्ञा से अंशुमान घोड़े को लेकर यज्ञ मंडप में पहुंच राजा सगर को पूरा वृतांत बताया। महाराज सगर की मृत्यु के पश्चात अंशुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया, परन्तु वह असफ़ल रहे। इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने भी तपस्या की परन्तु वे भी असफ़ल रहे । अन्त में दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर तपस्या की। तपस्या करते-करते बहुत से वर्ष बीत गये। तब ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर ले जाने का वरदान दिया। अब समस्या यह थी कि ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के बाद गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा। ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है।  इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह करो। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शंकर अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। ब्रह्माजी ने अपने कमंडल से गंगाजी को पृथ्वी पर छोड़ा.शिवजी ने उन्हे अपनी जटाओं में समेट लिया। कई वर्षों तक गंगाजी को जटाओं से निकलने का रास्ता नही मिल सका। महाराज भागीरथ ने भगवान शंकर से फ़िर से गंगाजी को छोड़ने का अनुग्रह किया. भगवान शंकर ने गंगाजी को पृथ्वी पर खुला छोड़ दिया। गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल-कल करती हुई मैदान की तरफ़ बढीं. आगे-आगे भागीरथ जी और पीछे-पीछे गंगाजी। जिस रास्ते से गंगाजी जा रहीं थी,उसी रास्ते में ऋषि जन्हु का आश्रम था। गंगाजी के सानिध्य से उनकी तपस्या में विघ्न पड़ा, तो वे गंगाजी को पी गये। भागीरथ के द्वारा उनसे प्रार्थना करने पर उन्होने अपनी जांघ से गंगाजी को निकाल दिया। गंगाजी ऋषि जन्हु के द्वारा जांघ से निकालने के कारण जन्हु की पुत्री जान्ह्वी कहलायीं।  इस प्रकार गंगाजी हरिद्वार,सोरों और ब्रह्मवर्त प्रयाग और गया होती हुई केलिकात्री स्थान पर जा पहुंची । उसके आगे कपिल मुनि का आश्रम जो आज गंगासागर के नाम से मशहूर है, वहां पर राजा भागीरथ के पीछे-पीछे जाकर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की भस्म को अपने में समेट कर समुद्र में मिल गयीं।  उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप और प्रयास की भूरि-भूरि प्रसंसा की। ब्रह्माजी ने भागीरथ के साथ उनके हजार प्रतिपितामहों को अमर होने का वरदान दिया। उसके बाद उन्होने भागीरथ को वरदान दिया कि गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के कारण उनका एक नाम भागीरथी भी होगा। राजा भगीरथ ने प्रजा को एक हजार वर्ष तक सुख पहुंचाकर मोक्ष को प्राप्त किया। इस कथा को सुनने और सुनाने पर जाने अन्जाने में किये गये पापों का उसी प्रकार से अन्त हो जाता है। जिस प्रकार से सूर्योदय के पश्चात अंधेरे का।

SHANI JAYANTI - शनि जयन्ती

SHANI JAYANTI

18th May 2015

सम्पूर्ण सिद्धियों के दाता सभी विघ्नों को नष्ट करने वाले सूर्य पुत्र  ' शनिदेव '।  ग्रहों में सबसे शक्तिशाली ग्रह।  जिनके शीश पर अमूल्य मणियों से बना मुकुट सुशोभित है। जिनके हाथ में चमत्कारिक यन्त्र है। शनिदेव न्यायप्रिय और भक्तो को अभय दान देने वाले हैं। प्रसन्न हो जाएं तो रंक को राजा और क्रोधित हो जाएं तो राजा को रंक भी बना सकते हैं। 
इसलिए शनि जयन्ती के दिन हमें काला वस्त्र, लोहा, काली उड़द, सरसों का तेल दान करना चाहिए, तथा धूप, दीप, नैवेद्य, काले पुष्प से इनकी पूजा करनी चाहिए।

Shani Dev
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि का फ़ल व्यक्ति की जन्म कुंडली के बलवान और निर्बल ग्रह तय करते हैं। मनुष्य हो या देवता एक बार प्रत्येक व्यक्ति को शनि का साक्षात्कार जीवन में अवश्य होता हैं । शनि के प्रकोप को आदर्श और कर्तव्य के प्रतिमूर्ति प्रभु श्रीराम, महाज्ञानी रावण, पाण्डव और उनकी पत्नि द्रोपदी, राजा विक्रमादित्य सभी ने भोगा है। इसिलिए मनुष्य तो क्या देवी देवता भी इनके पराक्रम से घबराते हैं।
कहा जाता है शनिदेव बचपन में बहुत नटखट थे। इनकी अपने भाई बहनों से नही बनती थी। इसीलिये सूर्य ने सभी पुत्रों को बराबर राज्य बांट दिया। इससे शनिदेव खुश नही हुए। वह अकेले ही सारा राज्य चलाना चाहते थे, यही सोचकर उन्होनें ब्रह्माजी की अराधना की। ब्रह्माजी उनकी अराधना से प्रसन्न हुए और उनसे इच्छित वर मांगने के लिए कहा। शनि बोले - मेरी शुभ दृष्टि जिस पर पड़ जाए उसका कल्याण हो जाए तथा जिस पर क्रूर दृष्टि पड़ जाए उसका सर्वनाश हो जाए। ब्रह्मा से वर पाकर शनिदेव ने अपने भाईयों का राजपाट छीन लिया। उनके भाई इस कृत्य से दुखी हो शिवजी की अराधना करने लगे। शिव ने शनि को बुला कर समझाया तुम अपनी शक्ति का सदुपयोग करो। शिवजी ने शनिदेव और उनके भाई यमराज को उनके कार्य सौंपे। यमराज उनके प्राण हरे जिनकी आयु पूरी हो चुकी है, तथा शनि देव मनुष्यों को उनके कर्मो के अनुसार दण्ड़ या पुरस्कार देंगे। शिवजी ने उन्हें यह भी वरदान दिया कि उनकी कुदृष्टि से देवता भी नहीं बच पायेंगे।
माना जाता है रावण के योग बल से बंदी शनिदेव को लंका दहन के समय हनुमान जी ने बंधन मुक्त करवाया था। बंधन मुक्त होने के ऋण से मुक्त होने के लिए शनिदेव ने हनुमान से वर मांगने को कहा। हनुमान जी बोले कलियुग मे मेरी अराधना करने वाले को अशुभ फ़ल नही दोगे। शनि बोले ! ऐसा ही होगा। तभी से जो व्यक्ति हनुमान जी की पूजा करता है, वचनबद्ध होने के कारण शनिदेव अपने प्रकोप को कम करते हैं।