Friday, May 29, 2015

NIRJALA EKADASHI - निर्जला एकादशी

NIRJALA EKADASHI

29th May 2015

ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष पर पड़ने वाली एकादशी को निर्जला एकादशी कहा जाता है। यह इतना कठोर व्रत है कि इस व्रत में पानी भी नहीं पिया जाता। इसलिये इसे निर्जला एकादशी कहा जाता है। इस व्रत को रखने से सभी एकादशियों का फ़ल मिल जाता है। इसलिये वर्ष भर की चौबीस एकादशियों में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
यह व्रत सभी वर्ग के लोगो को करना चाहिए। इस दिन एकान्त में बैठ कर भगवान विष्णु का शेषशायी रूप में ध्यान और "ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय:" मंत्र का जाप करना चाहिये। इस व्रत में रात में सोना वर्जित माना गया है। द्वादशी को स्नान आदि करके भगवान विष्णु का ध्यान लगाना चाहिये। गोदान, वस्त्रदान, फ़ल,शर्बत आदि का दान करने के पश्चात ही गुड़ का बना शर्बत पीना चाहिए। उसके कुछ घंटे के बाद ही भोजन करना चाहिये।

Lord Vishnu
महाभारत काल में एक बार महार्षि व्यास पांडवों के घर पधारे. भीम ने महार्षि व्यास को बताया । युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, सहदेव, माता कुन्ती और द्रोपदी सभी एकादशी का व्रत करते है, और मुझसे भी व्रत करने को कहते है, परन्तु मैं बिना खाये पिये नही रह सकता हूँ। इसलिये चौबीस एकादशियों पर निराहार रहने के कष्ट साधना से बचाकर मुझे कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसे करने से मुझे सभी एकादशियों का फ़ल प्राप्त हो जाए। महर्षि व्यास जानते थे, कि भीम के अन्दर बृक नामक अग्नि है, जो अधिक भोजन करने पर भी शान्त नही होती है। महार्षि ने भीम से कहा कि तुम ज्येष्ठ मास की एकादशी का व्रत रखो। इस व्रत को करने से चौबीसों एकादशियों का लाभ मिल जाता है। तुम जीवन भर इस एकादशी का व्रत करो। भीम ने बड़े साहस से निर्जला एकादशी का व्रत किया, जिसके परिणामस्वरूप सुबह होते होते वे बेहोश हो गये, तब पांडवों ने भीम की बेहोशी को दूर करने के लिये गंगाजल, तुलसी चरणामृत का प्रसाद देकर उनकी बेहोशी को दूर किया। इसलिये इसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है।

Tuesday, May 12, 2015

GANGA DUSSEHRA - गंगा दशहरा

GANGA DUSSEHRA - गंगा दशहरा

27th May 2015

गंगा दशहरा का पर्व ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष दशमी को मनाया जाता है। ज्येष्ठमास की शुक्ल पक्ष की दसवीं को हस्त नक्षत्र और सोमवार होने पर, यह अभूतपूर्व समय माना जाता है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। इसलिये ही यह तिथि अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस दिन गंगा स्नान का महत्व अधिक माना जाता है.क्योकि गंगा स्नान, दान, तर्पण से दस पापों का नाश होता है।  इसलिये इस तिथि को दशहरा कहा जाता है।
प्राचीन काल में अयोध्या के राजा सगर की केशिनी और सुमति नामक दो रानियां थीं। केशिनी के अंशुमान नामक पुत्र और सुमति के साठ हजार पुत्र हुये। राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया यज्ञ की पूर्ति के लिये एक घोड़ा छोड़ा गया ।  इन्द्र यज्ञ को भंग करने हेतु घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये। राजा ने यज्ञ के घोड़े को खोजने के लिये अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा। घोड़े को खोजते- खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे। उन्होने यज्ञ के घोड़े को वहां बंधा पाया। उस समय कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर समझ चोर-चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया।  कपिल मुनि की समाधि टूट गयी। क्रोधित हो राजा के सारे पुत्रों को श्राप से जला कर भस्म कर दिया। पिता की आज्ञा पाकर अंशुमान अपने भाइयों को खोजता हुआ कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचा
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महात्मा गरुड ने अंशुमान को उसके भाइयों के भस्म होने का वृतांत बताया, उन्होनें अंशुमान को यह भी बताया कि अगर अपने भाईयो की मुक्ती चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पड़ेगा। महात्मा की आज्ञा से अंशुमान घोड़े को लेकर यज्ञ मंडप में पहुंच राजा सगर को पूरा वृतांत बताया। महाराज सगर की मृत्यु के पश्चात अंशुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया, परन्तु वह असफ़ल रहे। इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने भी तपस्या की परन्तु वे भी असफ़ल रहे । अन्त में दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर तपस्या की। तपस्या करते-करते बहुत से वर्ष बीत गये। तब ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर ले जाने का वरदान दिया। अब समस्या यह थी कि ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के बाद गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा। ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है।  इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह करो। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शंकर अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। ब्रह्माजी ने अपने कमंडल से गंगाजी को पृथ्वी पर छोड़ा.शिवजी ने उन्हे अपनी जटाओं में समेट लिया। कई वर्षों तक गंगाजी को जटाओं से निकलने का रास्ता नही मिल सका। महाराज भागीरथ ने भगवान शंकर से फ़िर से गंगाजी को छोड़ने का अनुग्रह किया. भगवान शंकर ने गंगाजी को पृथ्वी पर खुला छोड़ दिया। गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल-कल करती हुई मैदान की तरफ़ बढीं. आगे-आगे भागीरथ जी और पीछे-पीछे गंगाजी। जिस रास्ते से गंगाजी जा रहीं थी,उसी रास्ते में ऋषि जन्हु का आश्रम था। गंगाजी के सानिध्य से उनकी तपस्या में विघ्न पड़ा, तो वे गंगाजी को पी गये। भागीरथ के द्वारा उनसे प्रार्थना करने पर उन्होने अपनी जांघ से गंगाजी को निकाल दिया। गंगाजी ऋषि जन्हु के द्वारा जांघ से निकालने के कारण जन्हु की पुत्री जान्ह्वी कहलायीं।  इस प्रकार गंगाजी हरिद्वार,सोरों और ब्रह्मवर्त प्रयाग और गया होती हुई केलिकात्री स्थान पर जा पहुंची । उसके आगे कपिल मुनि का आश्रम जो आज गंगासागर के नाम से मशहूर है, वहां पर राजा भागीरथ के पीछे-पीछे जाकर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की भस्म को अपने में समेट कर समुद्र में मिल गयीं।  उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप और प्रयास की भूरि-भूरि प्रसंसा की। ब्रह्माजी ने भागीरथ के साथ उनके हजार प्रतिपितामहों को अमर होने का वरदान दिया। उसके बाद उन्होने भागीरथ को वरदान दिया कि गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के कारण उनका एक नाम भागीरथी भी होगा। राजा भगीरथ ने प्रजा को एक हजार वर्ष तक सुख पहुंचाकर मोक्ष को प्राप्त किया। इस कथा को सुनने और सुनाने पर जाने अन्जाने में किये गये पापों का उसी प्रकार से अन्त हो जाता है। जिस प्रकार से सूर्योदय के पश्चात अंधेरे का।

SHANI JAYANTI - शनि जयन्ती

SHANI JAYANTI

18th May 2015

सम्पूर्ण सिद्धियों के दाता सभी विघ्नों को नष्ट करने वाले सूर्य पुत्र  ' शनिदेव '।  ग्रहों में सबसे शक्तिशाली ग्रह।  जिनके शीश पर अमूल्य मणियों से बना मुकुट सुशोभित है। जिनके हाथ में चमत्कारिक यन्त्र है। शनिदेव न्यायप्रिय और भक्तो को अभय दान देने वाले हैं। प्रसन्न हो जाएं तो रंक को राजा और क्रोधित हो जाएं तो राजा को रंक भी बना सकते हैं। 
इसलिए शनि जयन्ती के दिन हमें काला वस्त्र, लोहा, काली उड़द, सरसों का तेल दान करना चाहिए, तथा धूप, दीप, नैवेद्य, काले पुष्प से इनकी पूजा करनी चाहिए।

Shani Dev
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि का फ़ल व्यक्ति की जन्म कुंडली के बलवान और निर्बल ग्रह तय करते हैं। मनुष्य हो या देवता एक बार प्रत्येक व्यक्ति को शनि का साक्षात्कार जीवन में अवश्य होता हैं । शनि के प्रकोप को आदर्श और कर्तव्य के प्रतिमूर्ति प्रभु श्रीराम, महाज्ञानी रावण, पाण्डव और उनकी पत्नि द्रोपदी, राजा विक्रमादित्य सभी ने भोगा है। इसिलिए मनुष्य तो क्या देवी देवता भी इनके पराक्रम से घबराते हैं।
कहा जाता है शनिदेव बचपन में बहुत नटखट थे। इनकी अपने भाई बहनों से नही बनती थी। इसीलिये सूर्य ने सभी पुत्रों को बराबर राज्य बांट दिया। इससे शनिदेव खुश नही हुए। वह अकेले ही सारा राज्य चलाना चाहते थे, यही सोचकर उन्होनें ब्रह्माजी की अराधना की। ब्रह्माजी उनकी अराधना से प्रसन्न हुए और उनसे इच्छित वर मांगने के लिए कहा। शनि बोले - मेरी शुभ दृष्टि जिस पर पड़ जाए उसका कल्याण हो जाए तथा जिस पर क्रूर दृष्टि पड़ जाए उसका सर्वनाश हो जाए। ब्रह्मा से वर पाकर शनिदेव ने अपने भाईयों का राजपाट छीन लिया। उनके भाई इस कृत्य से दुखी हो शिवजी की अराधना करने लगे। शिव ने शनि को बुला कर समझाया तुम अपनी शक्ति का सदुपयोग करो। शिवजी ने शनिदेव और उनके भाई यमराज को उनके कार्य सौंपे। यमराज उनके प्राण हरे जिनकी आयु पूरी हो चुकी है, तथा शनि देव मनुष्यों को उनके कर्मो के अनुसार दण्ड़ या पुरस्कार देंगे। शिवजी ने उन्हें यह भी वरदान दिया कि उनकी कुदृष्टि से देवता भी नहीं बच पायेंगे।
माना जाता है रावण के योग बल से बंदी शनिदेव को लंका दहन के समय हनुमान जी ने बंधन मुक्त करवाया था। बंधन मुक्त होने के ऋण से मुक्त होने के लिए शनिदेव ने हनुमान से वर मांगने को कहा। हनुमान जी बोले कलियुग मे मेरी अराधना करने वाले को अशुभ फ़ल नही दोगे। शनि बोले ! ऐसा ही होगा। तभी से जो व्यक्ति हनुमान जी की पूजा करता है, वचनबद्ध होने के कारण शनिदेव अपने प्रकोप को कम करते हैं।