Tuesday, June 2, 2015

कबीर जयंती

कबीर जयंती

02nd June 2015

हिंदी साहित्य में कबीर जी के नाम की अपनी एक अलग ही विशेषता और महत्ता है । हिंदी साहित्य की पृष्ठभूमि पर यदि नजर दौड़ायी जाए तो, कबीर के  वर्णन के बिना हिंदी साहित्य लगभग अधूरा-सा है। कबीर जी संत तो थे ही लेकिन इसके साथ ही वो एक समाज सुधारक भी थे। लेकिन कबीर जी की विशेषता यह थी कि उन्होनें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो के भेद मिटा कर अपने दोहे और विचारों से धार्मिक सदभाव और प्रेम की मिसाल कायम की।

कबीर जी का जन्म - 
उनके जन्म और उनके धर्म दोनों के बारे में अलग-अलग मान्यताएं है। कुछ लोगों का मानना है कि वो हिन्दू धर्म के थे तो, कुछ मानते है कि वो मुस्लिम थे। कबीर जी का जन्म काशी में लहरतारा के पास सन् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ था । उनके जीवन के बारे में अनेक भ्रांतियां हैं। ऐसा माना जाता है की कबीर जी का पालन पोषण जुलाहा परिवार में हुआ था।

कबीर जी के माता-पिता और गुरु – 
कबीर जी के माता-पिता के बारे में भी एक निश्चित राय नहीं हैं। कहा जाता है कि उनके माता-पिता “नीमा” और “नीरू” थे। जिन्होने उनका लालन-पालन किया। कबीर जी अपना गुरू रामानंद जी को मानते थे। कबीर जी का प्रथम साक्षात्कार रामानंद जी से गंगा स्नान के दौरान हुआ था। किसी कारणवश जब कबीर जी घाट की सीढियों पर गिर पडे तो रामानंद जी का पैर उनके ऊपर पड गया और उनके मुंह से सिर्फ “राम-राम” के शब्द निकले, जिन्होनें कबीर जी को इतना प्रभावित किया कि उन्होनें रामानंद जी को अपना गुरु मान लिया।

कबीर जी की भाषा - 
कबीर जी अपने विचार सधुक्कड़ी भाषा में लोगों के सामने रखते थे। कबीर जी ने उन सभी परम्पराओं का खुल कर विरोध करते थे जो लोगों के बीच वैर भाव को जन्म दे। फिर चाहे वो बुराईयां हिन्दू धर्म में रही हों या मुस्लिम धर्म में। कबीर जी भले ही पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन साधू-संतो में उनका काफी सम्मान था। उनके घर के भीतर साधू-संतो का जमावड़ा लगा रहता था। कबीर जी की भाषा इतनी सरल थी की उसे बुद्धिजीवी से लेकर अनपढ़ वर्ग के लोग भी सरलता से समझ जाते थे क्योंकि वो पोथियों का ज्ञान नहीं, बल्कि प्रेम की भाषा बोलते थे। इसलिए कबीर जी की ख्याति घर-घर तक फैली हुई थी।
कबीर जी की रचनाएं - 
कबीर जी के सभी विचारों और दोहो के संग्रह को "बीजक" का नाम दिया गया। जिसमें कबीर जी की मुख से निकली अनमोल वाणी को सहेज कर रखा गया है। कबीर जी के 200 पद और 250 साखियां गुरु ग्रंथ साहब में भी हैं। कबीर जी की दोहे इस प्रकार के थे की वो उस समय तो प्रासंगिक थे ही, लेकिन आज भी वो उतना ही महत्व रखते हैं। कबीर जी के दोहे में किसी प्रकार के धर्म विशेष की झलक नही अपितु वो ज्ञान दिखाई देता है, जो भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है। जिसकी जड़े हमारे संस्कारो से जुड़ी हुई है, जो हमें अपने गुरुओं का आदर करना सिखाती है, जो हमे रिश्तों का सच और सत्य की परिभाषा समझाती हैं। जैसे-
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।
इस दोहे में कबीर जी गुरु की महिमा बता रहे हैं और उन्होंने गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है। क्योकि गुरु आपको ईश्वर तक पहुचाने का मार्ग बताते हैं और यही भारतीय संस्कृति की पहचान है।  
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।। 
कबीर जी इस दोहे में एक ऐसा संदेश दे रहे है कि जो आज के युवाओं के लिये बहुत ही उपयोगी है। कबीर जी बडी सरलता से इस दोहे में बता रहे हैं कि आप क्रोध ना करें, शांति से काम ले और दुनिया में भी शांति का संदेश दें।
कबीर जी की मृत्यु 
कबीर जी की मृत्यु 1518 में मगहर में हुई। मृत्यु के बाद भी हिन्दू और मुस्लिम धर्म के लोगों में इस बात को लेकर विवाद छिड़ गया की कबीर जी का दाह संस्कार उनके धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार   होगा। लेकिन जब कबीर जी के शव के ऊपर से चादर हटाई गई तो, वहां उनके शव के स्थान पर फूल मिले जिसे हिन्दू और मुस्लिम दोनों ने बाँट लिए और अपने-अपने धर्मो के अनुसार उन्हें श्रद्धांजलि दी।    कबीर जी ने अपने जीवन में तो दोनों धर्मो के बीच प्रेम की अलख जगायी लेकिन, अपनी मृत्यु के बाद भी उन्होंने दोनों धर्मो को प्रेम का ही सन्देश दिया।

वट सावित्री व्रत

वट सावित्री व्रत
02nd June 2015
वट सावित्री व्रत सौभाग्य और संतान सुख देने वाला व्रत । इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न - भिन्न मत हैं. स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान बताया गया है तो वहीं निर्णामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है । वट सावित्री व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पुराणों में पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी एक विशेष महत्व बताया गया है. वट में ब्रह्मा, विष्णु , महेश तीनों का ही वास है । इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से प्रत्येक मनोकामना पूरी होती है।
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध का भी प्रतीक माना गया है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। इस दिन बरगद, वट या पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है । वट वृक्ष के नीचे की मिट्टी की बनी सावित्री और सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यम की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करनी चाहिये । पूजा के लिये जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फ़ूल तथा धूप होनी चाहिये। बट की जड़ में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करना चाहिये। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वट वृक्ष की बारह परिक्रमा करनी चाहिये। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाएं और सूत तने पर लपेटती जाएं। इसके पश्चात सत्यवान सावित्री की कथा सुननी चाहिये, जब पूजा समाप्त हो जाये तब ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलना चाहिये।

vat savitri vrat

ऐसा करने का उद्देश्य यह है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को प्राण दिए, उस समय सत्यवान को पानी पिलाकर सावित्री ने स्वयं वट वृक्ष की बौंडी खाकर पानी पिया था। कहा जाता है सत्यवान अल्पायु थे । नारद को सत्यवान के अल्पायु और मृत्यु का समय ज्ञात था, इसलिए उन्होनें सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी परन्तु सावित्री मन से सत्यवान को पति मान चुकी थी, इसलिए उन्होने सत्यवान से विवाह रचाया।
विवाह के कुछ दिनों पश्चात सत्यवान की मृत्यु हो गई, और यमराज सत्यवान के प्राण ले चल दिए। ऐसा देख सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल दी। पीछे आती हुई सावित्री को देखकर यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया । सावित्री बोली - जहां पति है वहीं पत्नी का रहना धर्म है, यही धर्म है और यही मर्यादा, पति को लिये बिना वह नही जायेगी । सावित्री की धर्म निष्ठा से प्रसन्न हो यमराज ने सावित्री के पति के प्राणों को अपने पाश से मुक्त कर दिया । सावित्री ने यमराज से अपने मृत पति को पुन: जीवित करने का वरदान एक वट वृक्ष के ही नीचे पाया था। तभी से महिलाएं अपने पति के जीवन और अक्षत सौभाग्य के लिए वट सावित्री का व्रत करने लगीं, और तभी से इस दिन वट वृक्ष की पूजा की जाती है।